बिहार के गरीब, ग्रामीण या छोटे शहरों के ग्राहकों को एक दिन में औसतन 17 घंटे बिजली मिलती है. वहीं औसतन केवल 38 प्रतिशत बिजली के बिल का भुगतान किया गया, जहां पर ज्यादा बिल का भुगतान हुआ है, वहां भी बिजली कम मिलती रही है. ब्राजील, पाकिस्तान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में भी शोधकर्ताओं ने उपभोक्ताओं की इस आदत पर शोध किए. वहां भी बड़े स्तर पर यही प्रवृत्ति (आदत) देखने को मिली. भुगतान कम और बिजली ज्यादा कैसे ज्यादा मिलेगी, इस सवाल का जवाब शिकागो विश्वविद्यालय के शोधार्थियों ने खोजने की कोशिश की.
मिल्टन फ्रीडमैन प्रोफेसर माइकल ग्रीनस्टोन कहते हैं, “बिजली वितरण के इसी तौर-तरीके को अपनाकर गरीबों तक बिजली मुहैया कराना कठिन है. अगर ऐसा ही होता रहा तो बिजली कंपनियां घाटे में चली जाएंगी और बाजार गिर जाएगा. इसका सीधा असर हर किसी पर पड़ेगा.”
वह आगे कहते हैं, ‘’हमारा विचार है कि कोई भी समाधान तब तक काम नहीं करेगा, जब तक कि उसका सामाजिक मानदंड नहीं है. यानी कि बिजली एक अधिकार है, इस मानदंड को स्थापित करने के बजाय यह एक नियमित उत्पाद है, इसको को स्थापित नहीं किया जाए. कहने का अर्थ है कि जिस तरह लोग भोजन, सेल फोन आदि के लिए भुगतान करते हैं, ठीक उसी तरह बिजली के लिए भुगतान करना जरूरी है, इस मान्यता को स्थापित करना होगा…..